विकृत होती मानसिकता: समाज की भयावह तस्वीर
विकृत होती मानसिकता: समाज की भयावह तस्वीर
समाज में हम किस बदलाव को चाहते हैं...सोचिये !!!
रोज चोरी, लूटपाट, छेड़खानी इन सबके साथ-साथ हो रहे जगह-जगह घरेलू हिंसा, बलात्कार, शारीरिक और मानसिक शोषण समाज को कौनसे रूप में परिभाषित करते हैं ?
समाज में दिनों-दिन हो रही दिल दहला देने वाली घटनाओं से मन व्यथित हो उठता है I दिल्ली, हैदराबाद, उत्तरप्रदेश,हरियाणा, महाराष्ट्र, बिहार, झारखंड या राजस्थान कोई भी जगह हो इस तरह की घटनाएँ होना आम बात होती जा रही है I समाज की ऐसी तस्वीर पूरे राष्ट्र की छवि को धूमिल कर रही है I भाई-बहन, बाप-बेटी, गुरु-शिष्य हर एक रिश्ता तार-तार हो चुका है I रिश्तों का सम्मान ख़त्म होता जा रहा है I किसी पर भी विश्वास ख़त्म होता जा रहा है I एक शिष्य अपने अध्यापक में अपने माता-पिता की छवि देखता है तथा सम्मान करता है परन्तु बदलते सामाजिक परिवेश के कारण जिस रूप में आजकल गुरु-शिष्य एक-दूसरे की तरफ आकर्षित हो रहें हैं वह बहुत ही चिंताजनक स्थिति है I विद्यालय को मन्दिर समान मानने वाली भारतीय संस्कृति में आजकल बच्चे सिगरेट व ड्रग्स का सेवन विद्यालय परिसर में कर रहे हैं I विद्यालय, महाविद्यालय हो या फिर ट्यूशन टीचर इनमें से महिलाओं, लड़कियों को सम्मानपूर्वक देखने वाले बहुत कम ही रह गये हैं I कन्याओं का पूजन करने वाले इस समाज में किस तरह इन कन्याओं का शारीरिक शोषण करने वाले समाजकंटक दिन-प्रतिदिन बढ़ते जा रहे हैं I मानते हैं कि वर्तमान स्थितियां ऐसी हैं कि लड़कों-लड़कियों दोनों के साथ ही घृणित कार्य हो रहे हैं पर जिस तरह की भयावह घटनाएँ लड़कियों के साथ हो रही हैं वैसी लड़कों के साथ नहीं I पड़ौसी या रिश्तेदार घरों में घुसकर बच्चियों का शारीरिक शोषण कर रहे हैं तो कभी घर से उठा ले जाकर I
इन सभी कुत्सित व्यवहार के पीछे आधुनिक परिवेश को दोषी ठहराया जाता है तो ये सोचिये कि 2 साल, 4 साल, 9 साल की उम्र की लड़कियों को आप कितने गज कपड़ों में लपेटेंगे कि ये वारदातें रुक जायें ? आधुनिकता एक कारण है तो यह कितना सोचनीय विषय है कि इस आधुनिकता का समावेश समाज में कितना भीतर तक प्रवेश कर गया है कि घर की बच्चियां घर में ही सुरक्षित नहीं हैं I गाँव हो, शहर हो, घर हो, सड़क हो, स्कूल-कॉलेज हो, कार्यस्थल हो, बस-ट्रेन हो, दिन हो या रात हो कहीं भी किसी भी रूप में लड़कियां सुरक्षित नहीं है I कहीं कोई अभद्र टिप्पणी करता है तो कहीं कोहनियों की मार, कहीं गलत तरीके का स्पर्श तो कहीं रेप... और उस पर भी वीडियो बनाकर सोशल मीडिया पर भेजना और कहीं तेजाब डाल देना तो कहीं आग लगाकर जला देना जैसे जघन्य अपराध I जितना जघन्य अपराध सजा भी उतनी ही सख्त मिलनी चाहिये I इन घटनाओं के प्रति रोष हर किसी के सीने में व्याप्त है I सवाल रह जाता है मन में कि क्या हम ये हालात कभी सही कर पायेंगे ? आज उनके तो कल किसी और के साथ... ये घटनाएँ कब रुकेंगी ?
इसी संदर्भ में कुछ पंक्तियाँ 'अरुण' की कलम से -
" मेरे खुदा तूने औरत को खूबसूरत तो बना दिया
पर क्या तू मर्द की आँखों को भी कभी अच्छा कर पायेगा ...!!!
लो ढक लिया सिर, संभाल लिया पल्लू, पहन लिये पूरे तन को छिपाये कपड़े
अब तो दे दो गारंटी कि वह उस पर कहीं और नज़रे नहीं दौड़ायेगा I
मोमबत्ती की रौशनी लेकर चौराहे का अंधेरा मिटाया सबने
देखते हैं कब कितनों के मन में लौ रूपी दीपक लहरायेगा I
रहते हैं मौन जब कॉलेज, ऑफिस और सड़कों पर छेड़ी जाती है लड़कियाँ
खोलते हैं जुबान जब कहीं बड़ा अत्याचार हो जायेगा I
निकलना छोड़ दिया है अब घर की दहलीज से
पर कहाँ जायेंगे जब कोई अपना ही भरोसे की पताका झुकायेगा I
ज्यादा ना सही पर आधी जाति तो औरत की है
ऐ मर्द क्या कभी तू भाई, बेटा, पिता, पति होने का फर्ज निभायेगा...!!!
हालात ऐसे ही रहे तो...
इंतज़ार कर ये तूफ़ान जल्दी ही तेरी चौखट पर होगा
देना गवाही उस दिन जब इसी तरह खुद लाचार बन जायेगा I
जहन का कचरा क़दमों तले रख दोगे सब के सब
जब तुम्हारी माँ बहिनों के साथ ऐसा सितम कोई ढायेगा I"
हालात हमें ही सुधारने होंगे I इस तरह की वारदातें होने से रोकने के लिये हमें आगे आना पड़ेगा I इस तरह की घटनाओं के लिये हम किसी एक विशेष वर्ग, जाति, स्थान या परिस्थिति को जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते हैं I इस तरह की घटनाओं के लिये चाहे वह पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव हो, चाहे मीडिया या सिनेमा का असर, चाहे सोच में आता निरन्तर बदलाव सभी कुछ कहीं ना कहीं किसी ना किसी रूप में जिम्मेदार हैं I इस पर अरुण लिखते हैं -
"दिन ख़त्म होने से पहले हमें use करना है पूरा data,
इसी चक्कर में आज हमें बहुत कुछ नहीं आता,
शरीर के साथ दिमाग को भी खोखला कर दिया इसने,
माँ बाप तो हैं ही क्या, हमें इसके अलावा कुछ भी समझ नहीं आता I
कितनी पावरफुल और कितनी ज्यादा हो गयी है मोबाइल की रेंज,
दादी नानी की कहानियों का ख़त्म कर दिया है क्रेज,
पिताजी आते ही पूछा करते थे गिनती और पहाड़े,
हमसे छीन लिया इसने घड़ी, कैलक्यूलेटर, पेन और पेज I
Feelings का क्या चेहरे के साथ comments बदलने लगे हैं,
बन्दगी, सहजता, सादगी से जीता था आदमी,
इस social media के ज़माने में बस नीयत नहीं बदलती,
अत्याचारों के साथ-साथ status बदलने लगे हैं I"
हर एक उस चीज पर अंकुश लगाना होगा जिससे बच्चों में नकारात्मक मूल्य स्थापित हो रहे हैं I मोबाइल, टीवी, इंटरनेट, सोशल मीडिया का अनुचित प्रयोग करने से बच्चों को रोकना होगा I नारी सशक्तिकरण नारी सुरक्षा की बातें करने वाले समाज के नैतिक पतन की पराकाष्ठा और क्या होगी कि समाज को आगे बढ़ाने वाली स्त्री के लिये स्वयं की निजता और सम्मान बचाये रखना अब एक चुनौती हो गया है I एक के बाद होती ऐसी घटनाएँ बच्चों के मन-मस्तिष्क पर बहुत गहरा असर करती है I सोचिये अगर हमें ऐसी घटनाएँ भीतर तक झकझोर देती हैं तो बच्चों पर क्या असर डालती होगी I बेख़ौफ़ घूम रहे इन अपराधियों से लड़कों में असामाजिकता पनप रही है और लड़कियों में आत्मसुरक्षा को लेकर चिंता बढ़ रही है I मन-मस्तिष्क को विचलित कर देती है इन बेटियों की लेखनी जब इन विषयों पर लिखती है I
बेटियों की लेखनी से कुछ पंक्तियाँ -
"अकेले रात को मत जाना, कुछ गलत हो जायेगा",
कहकर डराया गया मुझे
"छोटे कपड़े मत पहनना वरना टांगे तोड़ दूंगा",
कहकर धमकाया गया मुझे
"वो तो बार डांसर थी ना",
कहकर विश्वास दिलाया गया मुझे कि गलती तो उस लड़की की ही थी
लेकिन ना तो वो लाचार होकर सड़क पर 2 बजे अकेले चल रही थी,
और ना उसने छोटी स्कर्ट पहनी थी
तो फिर क्यों ?
"क्योंकि लड़के है ना", कहकर चुप कराया गया मुझे
लेकिन अब नहीं
जब भी निर्भया के बारे में बात करके ये न्यूज़ चैनल वाले अपनी टीआरपी बढ़ायेंगे,
तब मेरी चीख निकलेगी
जब भी आसिफा के बारे में सोचकर मेरी रूह तडपेगी...,
मैं उडूंगी
चाहे मेरे पर काट दो, अब मेरी आवाज उठेगी
जब प्रियंका के लिये सांतवे दिन कैंडल मार्च निकलना बंद हो जायेगी,
तब मेरे आंसू पत्थर में बदलेंगे
अब मुझे तुम डरा नहीं सकते I
अब मुझे तुम धमका नहीं सकते I
"क्योंकि लड़के है ना" कहकर अब मुझे तुम चुप करा नहीं सकते II
बेटियों की लेखनी से कुछ पंक्तियाँ -
"क्यों..." पूछती हूँ मैं खुद से
क्यों देर से घर आने पर माँ दरवाजे पर मेरा इंतज़ार करती है ?
क्यों अकेले बाहर चलने पर मैं घबरा जाती हूँ ?
क्यों मेरी मनपसंद ड्रेस को मैं नकारती हूँ,
मेरे घुटने से कितनी ऊपर कितनी नीचे बस यही देखती हूँ ?
क्यों एक सुनसान सड़क पर अकेले चलूँ या अपने घर बैठूं,
डर मुझे उतना ही खाता है ?
क्यों जो मेरे हाथों में प्रसाद थमाता है वही मेरी सांसों को जकड़ता है ?
क्यों मुझे हजारों लोगों में भी अकेले लगता है ? क्यों 'खुली तिजोरी' जैसा लगता है ?
क्यों ये नेता मेरे कपड़े खुलने पर अपनी जेबें भरते हैं?
क्यों जितना तुम ये बात सुन सुनकर थक गए हो , उतना मैं बोल बोलकर थक गयी हूँ ?
आज क्यों मेरा अपने में ही दम घुटता है...?
बच्चियों की इन पंक्तियों को यहाँ लिखते हुए मेरे अन्दर जो आत्ममंथन चला वह बयान नहीं किया जा सकता I मन विचलित हो गया तो सोचकर देखिये इनके खुद के अन्दर किस तरह का तूफ़ान उठ रहा होगा I ऐसे समय में बच्चों की मानसिक स्थिति सही रखने की जिम्मेदारी हर अभिभावक, शिक्षक, साथियों की होती है I समाज कितना गर्त में जा रहा है इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता ही कि छोटी कक्षाओं के लड़के मिलकर एक पहली कक्षा की बच्ची का रेप करने की कोशिश करते हैं I बच्चों में बढ़ती क्रोध, बदला, हीनता की भावना तथा थोड़े से रुपये आते ही मनोरंजन एवं दूसरों के सामने दिखावे की प्रवृत्ति के खतरनाक परिणाम सामने आ रहे हैं I
वक्त है किसी पर टीका-टिप्पणी छोड़कर हम एकजुट होकर इस तरह की विकृत होती मानसिकता में बदलाव लायें I बेटियों की तरफ उठने वाले हर हाथ को रोका जाये I हर उस गलत तरीके से उठती नजर को रोकना होगा जो बेटियों की तरफ उठती है Iसमस्या के समाधान करने के साथ-साथ कोशिश करनी होगी कि समस्या उत्पन्न होने के सभी कारणों को ही ख़त्म किया जाये I बेटी पढ़ाओ बेटी बचाओ के साथ बेटी को सशक्त बनाओ आत्मनिर्भर बनाओ यह सब सिर्फ शिक्षा की दृष्टि से नहीं बल्कि शारीरिक तथा मानसिक रूप से भी बेटियों, महिलाओं को सबल बनाने से होना चाहिये I स्कूल-कॉलेज में स्वास्थ्य की दृष्टि से योग के साथ-साथ आत्म-सुरक्षा की दृष्टि से मार्शल आर्ट की ट्रेनिंग लड़कियों को अनिवार्यत: देनी चाहिये I अस्त्र-शस्त्र संचालन सिखाना चाहिये I मनोवैज्ञानिक परामर्शदाता से सम्पर्क अनिवार्यत: करवाया जाना चाहिये I उनके द्वारा विद्यालयों में समय-समय पर वार्ता रखवानी चाहिये I एक पत्र-पेटी लगवायी जानी चाहिये जिससे बच्चे अपनी परेशानी लिखकर बिना किसी के सामने आये अपनी बात खुलकर बता सकें I घर हो, स्कूल-कॉलेज हो, सार्वजनिक स्थान हो हमें लड़के-लड़कियों दोनों को ही मर्यादित व्यवहार करना सिखाना होगा I सुनिश्चित करना होगा कि वे शारीरिक रूप के साथ ही मानसिक रूप से भी स्वस्थ रहें I उन्हें अच्छी सीख देने वाली किताबें तथा साहित्य पढ़ने को प्रेरित करें I घर की महिलाओं की इज्जत करें तथा बच्चों में भी ऐसे संस्कार डालें I बच्चों के साथ समय व्यतीत करें, उन्हें अपनेपन का एहसास कराएं जिससे वे अपनी समस्या आपके साथ साझा कर सकें I
आशा है समाज के सभी गुणीजन बेटियों की सुरक्षा के लिये अपने कौशल का निस्वार्थ योगदान देंगे I
" तिरंगे की शान में गुलाब की महक तब तक ही रह पायेगी,
जब तक पंखुड़ियों-सी बेटियां देश में सुरक्षित रह पायेंगी "
- प्रेरणा तोमर
- प्रेरणा तोमर
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